गणेशजी विग्न हरता और मंगल करता है। गणेश जी के व्रत और पूजन से जुड़ी कई रोचक कथाए हमारे शास्त्रो में बताये गई है। ऐसा ही एक व्रत है कपर्दी विनायक व्रत। पौराणिक कथा गणेश जी के इस व्रत में व्यक्ति श्रावण के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी तक 1 महीने तक व्रत करते हैं और एक समय ही भोजन करते हैं। इससे उनकी मनोकामना पूरी होती है। वैदिक कथाओं में बताया गया है कि राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ में बहुत बड़ा विघ्न आने लगा था,तो उन्होंने इस व्रत को पूरा किया उसके बाद अपने यश नामक घोड़े को वापस पाया था।
एक उल्लेख हमारे ग्रंथों में मिलता है जहां यह बताया जाता है कि इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को देखने के लिए किया था यही व्रत इंद्र ने राजा विक्रमादित्य को देखने के लिए भी किया था। विक्रमादित्य की रानी ने इस व्रत की निंदा की थी। उन्हें अनगिनत कष्टों को भोगना पड़ा , कुष्ठ रोग भी हो गया। राजा ने उन्हें अपने राज्य से निकलवा भी दिया था। तब वे ऋषियों के आश्रम में रहने लगी थी। ऋषियों ने उन्हें बताया कि यह सब दुख उनके कपर्दी गणेश जी के व्रत की निंदा करने से हुआ है। आश्रम में ऋषियों ने बताया की आपका कुष्ठ रोग दूर हो सकता है , पूरे श्रद्धा के साथ और भक्ति भाव से व्रत करे। व्रत के फल स्वरुप उनको दिव्य शरीर भी प्राप्त हुआ। ऐसी मान्यता है कि जो भी स्त्री या पुरुष इस व्रत को विधान अनुसार करते हैं उन्हें अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों की प्राप्ति होती है।
पूजन विधि
व्रत श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक किया जाता है।
व्रत करने से पहले संकल्प लिया जाता है। संकल्प में ऐसा कहा जाता है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए मैं यह कपर्दी विनायक व्रत कर रही हूं या कर रहा हूं।
इस व्रत की पूजन विधि गणेश जी की संकट चतुर्थी के समान ही होती है संकष्टी चतुर्थी के समान ही होती है। एक ही बात की भिन्नता है की इसमें पूजन के बाद किसी ब्रह्मचारी ब्राह्मण को दान दक्षिणा के अलावा 28 मुट्ठी चावल एवं मिष्ठान देने का अतिरिक्त विधान है। चावलों को देते समय ईश्वर से प्रार्थना करें कि इन चावलों के प्रदान से कपर्दी गणनाथ भगवान श्री गणेश मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। फिर व्रत की कथा सुने और पारण करें। व्रत करने वाले का तेल, पान और भोगविलास से परहेज करना होता है।
पौराणिक कथा
इस व्रत का उल्लेख श्रीस्कंद पुराण में आया है। एक समय की बात है भगवान शिव ने अपनी पत्नी पार्वती जी से चौपड़ खेलने की अभिलाषा व्यक्त की। खेल में पार्वती जी ने धीरे-धीरे भगवान शिव की सारी चीजें जीत ली। शिवजी ने उनसे केवल अपना व्याघ्र चर्म लौटा देने का आग्रह किया। पार्वती जी ने लौटाने से मना कर दिया। शिवजी ने क्रोध में आकर 2 दिनों तक बातचित बांध करने का निर्णय लिया और वह से चले गए। पार्वती जी शिवजी को ढूंढने निकली तो एक बगीचे में उन्होंने बहुत सी स्त्रियों को किसी व्रत का पूजन करते हुए देखा। पार्वती जी ने भी विनायक व्रत आरंभ किया तो एक ही व्रत के प्रभाव से शिव जी ने प्रकट होकर कहां है पार्वती तुमने ऐसा कौन सा व्रत किया जिससे मेरा मन निश्चल हो गया और मेरा निश्चय भी टूट गया। पार्वती जी ने उन्हें व्रत का विधान बताया। बाद में इसी विधान को शिवजी ने विष्णु जी को बताया। आगे चल कर ये विधान विष्णुजी ने ब्रह्मा जी को बताया। ब्रह्मा जी से ये विधान इंद्र देव को पता चला। विक्रमादित्य को इंद्रा देव ने ये विधान बताया। विक्रमादित्य अपनी पत्नी सी जब इस व्रत की चर्चा करने लगे तब उनकी पत्नी ने व्रत की निंदा कर दी थी। बस फिर क्या था उनको कोढ़ हो गया, राजा ने भी उन्हें अपने राज्य से बाहर निकाल दिया ,तब उन्हें ज्ञात हुआ कि इस व्रत के अपमान निंदा के दुष्परिणाम स्वरूप उनकी अवस्था इतनी दैनीय हुई है। ऋषियों के परामर्श पर उन्होंने व्रत विधि विधान पूर्वक किया और चमत्कारी परिणाम प्राप्त किये। गणेश जी की कृपा से फिर से पूर्ण स्वस्थ हो गयी और ऋषि के आश्रम में रहकर सेवा कार्य करने लगी। इस के पश्चात एक समय की बात है एक ब्राह्मण को विलाप करते हुए देखकर पार्वती जी ने उनसे कारण पूछा तो ज्ञात हुआ कि वह दरिद्रता से त्रस्त हो गया हैं। ब्राह्मण को व्रत की जानकारी पार्वती जी से मिली। उसने भी पूर्ण श्रद्धा भाव के साथ इस व्रत को किया। व्रत के प्रभाव से वह विक्रमादित्य का एक मंत्री बन गया। समय बीतता गया और एक दिन आश्रम की ओर से विक्रमादित्य निकले तो अपनी रानी को भली चंगी देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई और उन्होंने उनसे पूछा कि वह ठीक कैसे हो गई। रानी ने बताया की उन्हें व्रत किया और व्रत के प्रताप सी ठीक हो गयी। राजा ने रानी को पुनः महल चलने को कहा। राज महल जा कर रानी को पहले की तरह ही सारी सुख सुविधाएं प्रदान की।